एक रोमन कैथोलिक इतिहासकार ने २,३०० वर्षों के लगातार यहूदी-विरोध का संक्षिप्त परंतु सजीव सार प्रस्तुत किया है:

‘क रोमी कैथलिक इतिहासकार २३०० वर्षों के निरन्तर गैर सामीवाद का एक संक्षिप्त परन्तु स्पष्ट आंकलन देते हैं : एक गैर सामीवाद के इतिहासकार के रूप में जब पीछे मुड़कर हजारों वर्ष के डरावनी बातों को देखता हूं तो न बचने वाला निष्कर्ष उभर कर सामने आता हैः गैर सामीवाद मानव इतिहास की एक लम्बी और गहरी घृणा है।

अन्य घृणायें भले तीव्रता से अधिक हो पर उसके सामने कम पाये जाते हैं जो एक ऐतिहासिक पल के कारण है, हर एक घृणा उसके सामने इतिहास के कचरे के डब्बे में जाने योग्य है। जो अन्य घृणायें है वे २३ शताब्दियों से चला आ रहा है और कुछ ६०००००० लोगों के नरसंहार को देखते हैं और इस २३वीं शताब्दी में यह और मजबूत होता दिखता है और जीवन के कई अधिक वर्षों तक अपनी क्षमता में उन्नति पायेगा। यह विवरण इनके विस्तार व इसके जवाब की मांग करता है। किस प्रकार यह खत्म न होने वाली घृणा और निर्दयता के सम्मिश्रण पाये जाते हैं। क्या है इसकी महत्वता? कौन या क्या जो इनके लिए जिम्मेदार है? माइकल फलावेरी अपनी किताब ‘दी एन्न्यूश ऑफ द जूईश’

(पोलिस्ट प्रेस, १६८५) में गैर सामीवाद का अपने स्वयं की स्पष्टीकरण देते हैं। उसकी टिप्पणी एक प्रज्जवलित व सहायक है, इसी प्रकार अन्य स्पष्टीकरण भी अन्य सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसे धर्मशिक्षा, साहित्यिक, समाजवाद, आर्थिक आदि। जहां तक कोई भी एक यथार्थ स्पष्टीकरण को नहीं दर्शाता है।

१६४६ में, मैंने इस प्रश्न को अपने इब्रानी अध्यापक से पूछा जिनका नाम श्री बेन सिय्योन सीगल था, जो एक नयी इब्रानी विश्वविद्यालय का सचिव भी था—वह विश्वविद्यालय यरूशलेम के स्कोपस पहाड़ में स्थित था। श्री सेगल यह मानते थे कि गैर सामीवाद की समस्या मूल रूप से समाजवाद के हैं; यहूदी हमेशा से एक पृथक अल्पसंख्यक रहे हैं जिनकी अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है और उनके चारों ओर स्थित अन्यजातीय देशों से भिन्नता लिए हुए हैं। एक बार जब यहूदियों को उनका खुद का एक राज्य मिला जो कुछ वर्षों पूर्व हुआ यह गैर सामीवाद के मूल कारणों का हल करता है।

इसके लिये मेरा जवाब थाः “अगर आप सही है कि गैर सामीवाद का मुख्य कारण समाजवाद है तो यहूदी राज्य की स्थापना इस समस्या को कई अच्छे रीति से हल निकालेगी। परन्तु अगर इसका मुख्य कारण आत्मिक है - जो मैं विश्वास करता हूं कि यहूदी राज्य की स्थापना इस समस्या का हल नहीं दे पायेगी, परन्तु इसे और अधिक तीव्रता से एक दृष्टिकोण को दिखाती हैः ‘“एक नये यहूदी राज्य की स्थापना करना।” जब मैं पीछे के समय को देखता हूं तो खेदपूर्वक कहता हूं कि इतिहास ने मुझे सही साबित किया। इस्त्राएल राज्य की स्थापना ने मात्र एक “राजनीतिक तौर से सही” नाम दिया है—‘गैर यहूदीवाद’ जो गैर सामीवाद के स्थान में दिया गया। अगर कुछ बढ़ी है तो वो है प्रकृति की तीक्षणता। अगर हम सही रूप से गैर सामीवाद का मुख्य कारण आत्मिकता के रूप में पहचानते हैं तो भी यह उसके जड़ तक नहीं पहुंचती। कुछ समय पहले बिना मेरे प्रयत्न के, मुझे पवित्रशास्त्र से दो महत्वपूर्ण प्रेरणा मिली जिससे मैं विश्वास करता हूं कि मैं गैर सामीवाद की जड़ को ढूंढ निकालूंगा ।

जब मैं यरूशलेम की एक स्थानीय कलीसिया में प्रचार कर रहा था, तब बिना जाने मैंने स्वयं को यह कहते सुना, “गैर सामीवाद को जोड़ा जाये तो एक शब्द मिलता है जो है—मसीहा ।” उसी क्षण मैंने यह जान लिया कि गैर सामीवाद का एक ही श्रोत है - शैतान -जो इस बात से प्रोत्साहित हुआ कि उस पर विजय प्राप्त करने वाला, मसीह, एक ऐसे लोगों के मध्य से आयेगा जिन्हें परमेश्वर ने तैयार की है। यह जन एक विशिष्ट स्वभाव के होंगेः मसीहा अपने सांसारिक माता पिता के आज्ञा का पालन करने का आदर्श रखेगा बिना अपने स्वर्गीय पिता का निरादर करते हुए जो किसी मूर्तिपूजन से हो सकता हैं। परमेश्वर द्वारा कई शताब्दियों से सांचे जाने से यहूदी जन ही सिर्फ उसकी आवश्यकताओं में खरे उतरे।

फिर मैंने देखा किस प्रकार इस्त्राएल के राज्य के रूप में पैदा होने के बाद से, शैतान बिना रूके दो कार्य करता हैः उन्हें मूर्तिपूजन से प्रलोभित करना और अगर यह असफल हुआ तो पूरे वंश का विनाश कर देना। शैतान कोशिश करता है इस्त्राएल को मूर्तिपूजन के प्रलोभन में डालने के लिए क्योंकि यह उसका ऐतिहासिक स्वभाव है।

इतिहास शैतान के दो कोशिशों को भी बयान करता है जिससे वह इस्त्राएल के राष्ट्र का विनाश करना चाहता है। मिश्र में, फिरोन ने सारे नवजात लड़कों को मार डालने की आज्ञा दी। अगर यह और लागू किया जाता तो शायद उनका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता। उसके बाद, हामान एक आदेश के साथ फारसी साम्राज्य में रहने वाले यहूदियों को मिटा देना चाहता था जो उस समय के जीवित यहूदियों पर प्रभावी था। दूसरे शताब्दी ई० पू० में एन्तियोकस एकिकेन जो सीरिया का राजा था और उसनें भी बल के साथ यहूदियों को अपनी एकमात्र मंजिल-राष्ट्र को त्याग करने को कहा और यूनानी की सभ्यता जो मूर्तिपूजन की थी उसे अपनाने को कहा। सिर्फ साहसी और मेक्काबीस की घिरी हुई कोशिश के कारण एक शताब्दी था उससे ज्यादा में यहूदियों का एक राष्ट्र हुआ और जहां यीशु मसीहा बन कर जन्म लिया।

उसके क्रूस पर दी गयी बलिदान से उसने अपने आने के उद्देश्य की पूर्ति की। इस्त्राएल व सारे राज्यों का प्रतिनिधि बनकर वह आया और परमेश्वर के सामने हमारे लिये सारी आवश्यकताओं को पूरा किया और इसमें शैतान का हमारे लिये जो दावा था उन्हें मिटा दिया। इन सब से हमने शैतान के ऊपर एक पूर्ण अनन्त और एक अटल विजय पायी। पराजय के पूर्ण महत्व तब देखने को मिलेगा जब यीशु का पुनः आगमन होगा। शैतान जो प्रचारकों की बातों से ज्यादा बाईबल की भविष्यवाणी पर ध्यान देता, वह इस सबसे परिचित है। शैतान जानता है कि यीशु की पुनः आगमन से पहले वह सारी दुष्ट प्रवृति करने के लिये स्वतंत्र है और अपने आपको “इस संसार के ईश्वर” (२ कुरिन्थियों ४ः४) के रूप में प्रस्तुत कर सके।

परन्तु एक बात से वह ज्यादा डरा हुआ है और वह उन बातों का विरोध अपनी पूरी सामर्थ से करता हैः यीशु के सामर्थ और महिमा में पुनः आगमन और अपने राज्य की स्थापना करना और शैतान का अस्तित्व इस जगत से मिटा देना। आज की दुनिया में जो लड़ाईयां और तनाव हम देखते है उन सब के पीछे शैतान की अदृश्य शक्तियों का हाथ है जो वह यीशु के पुनः आगमन के विरोध I में कर रहा है।

यरूशलेम में अपने अन्तिम भविष्यवाणियों में यीशु ने स्पष्ट रूप से दो बातों को बताया जो उसके पुनः आगमन से पहले घटेगी। पहला उसने कहा,

“और राज्य का यह सुसमाचार सारे जगत में प्रचार किया जायेगा कि सब जातियों पर गवाही हो, तब अन्त आ जाएगा।”

फिर उसके इस संसार की सेवकाई के अन्तिम समयों में उसने अपने चेलों को एक विशिष्ट आज्ञा दीः “और उसने उनसे कहा, तुम सारे जगत

में जाकर सारी जाति के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो” (मरकुस १६:१५)।

यीशु ने कभी अपने आदेशों को रद्द नहीं किया। वह आज भी लागू है। वह वापिस नहीं आयेगा जब तक उसके चेले इसे पूरा नहीं करते। शैतान हर कोशिश करेगा कि इस कार्य को कलीसिया न कर सके और ऐसा करने के लिए वह अपनी सारी सामर्थ लगा देगा। जितनी देर कलीसिया लगाएगी उतनी देर शैतान स्वाधीन रहेगा।

जहां तक कि इसके कुछ पहले ही यीशु ने यरूशलेम में कहा था (मत्ती २३:३८-३६) ।

प्रभु जिस प्रकार यहूदियों के हृदय को इसके लिए तैयार करेगा वह जकर्याह १२:१० में बताया गया हैः “और मैं दाऊद के घराने और यरूशलेम के निवासियों पर अपना अनुग्रह करने वाली और प्रार्थना सिखाने वाली आत्मा उंडेलूंगा तब वे मुझे ताकेंगे अर्थात जिसे उन्होंने वेधा है और उसके लिये ऐसे रोएंगे जैसे एकलौते पुत्र के लिए रोते पीटते हैं और ऐसा भारी शोक करेंगे जैसा पहिलौठे के लिए करते हैं।”

पवित्र आत्मा अलौकिक रूप से यहूदियों के हृदय में मंडलाएगा और उनके मसीहा की प्रकटीकरण को उन तक लायेगा और प्रभु को त्यागने और क्रूसित करने के कारण एक पश्चाताप भी उन पर लायेगा। ध्यान देवें कि यह ब्यौरा इस बात को स्पष्ट रूप सें बताता है “मैं दाऊद के घराने और यरूशलेम के निवासियों पर।” यहूदियों की स्वयं की भूमि पर पुर्नस्थापन और इसके लिए यरूशलेम नगर बहुत महत्व रखता है। जब तक यह नहीं होता तब तक शैतान की पराजय पूर्ण रूप से नहीं हो पाएगा।

यह दूसरी बात है जो यीशु के पुनः आगमन में पहले होगा; सारे यहूदी अपने भूमि में एकत्र होंगे और वह यरूशलेम नगर में होगा, फिर उनके हृदय यीशु को मसीहा मानने के लिये तैयार होना होगा। जिस प्रकार यीशु पहली बार उनके मध्य में आया उसी प्रकार निश्चय रूप से वह दूसरे बार भी उन्ही के मध्य से आयेगा।

यह व्यावहारिक ज्ञान मुझे दुनिया भर की उत्तेजना और व्याकुलता जो इस्त्राएल की घटना के विषय में है, एक नयी समझ की ओर ले जाती है। क्या हो सकता है कि रोज सारे दुनिया की प्रसारण केन्द्रों की नजर एक छोटे से टुकड़े भूमि की ओर है जिस पर पचास लाख की आबादी है जो किसी भी छोटे से नगर के जैसे हैं उस पर टिकी हुई है और साथ ही संगठित राष्ट्र व अन्य शासकीय राज्यों की भी। इसकी राजनीतिक व्याख्या साधारण तौर से नहीं हो सकती कि किस प्रकार संसार की शक्तियां, एक घटना के प्रति और एक जन समूह जिनकी ज्यादा महत्वता नहीं है उनके प्रति अपना ध्यान केन्द्रित कर सकती हैं।

मैंने इस विषय में भविष्यवक्ता योएल से एक प्रकटीकरण को प्राप्त किया कि इस युग के अन्त में परमेश्वर का न्याय सब राज्यों पर आयेगा और इसका आधार उनके रवैये से होगा जो इस्त्राएल की अपनी भूमि पर पुनर्गठित होने के विषय में है।

“क्योंकि सुनो, जिन दिनों में और जिस समय मैं यहूदा और यरूशलेम वासियों को बंधुआई से लौटा ले आऊंगा उस समय मैं सब जातियों को इकट्ठी करके यहोशापात की तराई में ले जाऊंगा और वहां उनके साथ अपनी प्रजा अर्थात निज भाग इस्त्राएल के विषय में जिसे उन्होंने अन्य जातियों में तितर-बितर करके मेरे देश को बांट लिया है उनसे मुकदमा लडूंगा।”

इस में बतायी गई बातें भयानक है और आसान नहीं दिखती। यीशु के पुनः आगमन को लेकर हमारा स्वभाव दो बातों से प्रगट होता हैः पहला इस संसार में सुसमाचार को लेकर हमारे विचार और दूसरा यहूदियों के अपने भूमि पर पुर्नस्थापित होने के विषय में।अगर हम इन दोनों बातों को महत्व नहीं देते हैं तो हम यीशु के पुनः आगमन को भी महत्व नहीं देते है।

बहुत से ऐसे मसीही हैं जो इस दुनिया के सुसमाचार के प्रचार के विषय में काफी चिन्तित है परन्तु वे इस्त्राएल के पुनः स्थापन के विषय में दृष्टिहीन है। फिर भी दोनों बातें, बाईबल की भविष्यवाणी और स्वयं यीशु के वचनों के

इस्त्राएल के पुनः स्थापन किसी धर्म-अध्ययन से अधिक गहरा है। आखिरकार यह आत्मिक बात जो है। जो आत्मा इस्त्राएल को पुनः स्थापन के विरूद्ध है वह आत्मा यीशु के पुनः आगमन के भी विरूद्ध है। जो आत्मा इस बात को छिपाने की कोशिश करती है वह और कोई नहीं परन्तु स्वयं शैतान है।

वचन के इन आदेशों को सुनने के बाद हम सब को अपने आप से एक निर्णयात्मक प्रश्न पूछना चाहिएः क्या मैं हर प्रकार से इस दुनिया पर सुसमाचार प्रसार की सहायता के लिए समर्पित हूं और क्या मैं मानता हूं कि इस्त्राएल एक राष्ट्र के रूप में अपने ही भूमि में पुनः स्थापित होगा? हमारा जवाब यीशु के पुनः आगमन के विषय में हमारे स्वभाव को प्रगट करेगा।

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